तीन बेटियों के बेचारे पिता
16 दिसंबर 2012 के आम महिला तथा उसके पुरुष मित्र के विरुद्ध अमानवीय दर्दनाक हिंसा के बाद हुए स्वतः स्पूर्त जन आंदोलन के दौरान आम महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के कई मामले सामने आए।साथ ही तीन बोटियों के बेचारे पिता होने के हादसे भी सामने आए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तीन बोटियों के बेचारे पिता होने वाले ये महानुभाव आमजन नही वरन् भारतीय अर्थव्यवस्था, (जीडीपी, बाजार, विदेशी मुद्रा आदि) के कर्णधार व भाग्यविधाता है। यह सारी चीजें सुचारुरुप से चलती रहें इसलिये कानून व्यवस्था वनाए रखने की जिम्मेदारी इन्ही के मजबूत कंधों पर है। पर अचानक आम महिला की (अ)सुरक्षा का प्रश्न उजागर होगया (आम भारतीय की सुरक्षा इनकी प्रार्थमिकता नही लगती है) तो इनको अपनी बेचारगी का इजहार कर जन सहानुभूति बटोरने को मजबूर होना पड़ा। मैं सोच रही थी कि क्या कभी तीन बेटों का पिता किसी कपूत के पिता की दांसता सुनकर अपनी बेचारगी इसी प्रकार सार्वजनिक करेगा। अपनी 65 साल की आयु में तो मैंने किसी माता पिता को बेटे होने पर बेचारे बनते नहीं देखा।
जब खास इतने मजबूर हैं तो आम तीन बोटियों के बेचारे पिता की हालत तो समझ समझ से परे है। अब उन बेचारों की कौन कहे जिनकी छः सात बेटिया ही बेटियां हैं। काश इन तीन बोटियों के बेचारे पिताओं ने सोचा होता कि जब ये अपनी बेचारगी बार बार बता रहे थे हम बेटियों पर क्या गुजर रही थी। पता नहीं इन महानुभावों की बेटियों ने इनकी इस सोच पर आपत्ति जताई कि नहीं।हमें सोचना होगा कि क्या बेटी के लिए दुराग्रह का मूल इसी भावना में तो नही है। जब तक लड़की को माता पिता बेटिया पालना मजबूरी मानते रहेंगे समाज में उसे समानता कैसे हासिल होगी।
हम बेटियों को ऊपर वाले का शुक्रगुजार होना चाहिये कि हमारी महिला मुख्य मंत्री, हमारे उपराज्यपाल(शायद) हमारे राष्ट्रपति तीन बोटियों के बेचारे माता या पिता नहीं है। उनको सहारा देने के लिए बेटे हैं। अभी राष्ट्रपति महोदय के प्रबुद्ध सुपुत्र ने आंदोलन में भाग लेने वाली महिलाओं पर अपनी (अ)बुद्धिमतापूर्ण टिप्पणी से समस्त महिला समाज को उद्वेलित कर दिया है। उनकी अपनी बहन ने उनके बयान से अपनी असहमति जताई है। पितृसत्ता के इस चरित्र पर प्रहार किये बगैर समानता की संसकृति विकसित करना संभव नही है।