गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

तीन बेटियों के बेचारे पिता


तीन बेटियों के बेचारे पिता

16 दिसंबर 2012 के आम महिला तथा उसके पुरुष मित्र के विरुद्ध अमानवीय दर्दनाक हिंसा के बाद हुए स्वतः स्पूर्त जन आंदोलन के दौरान आम महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के कई मामले सामने आए।साथ ही तीन बोटियों के बेचारे पिता होने के हादसे भी सामने आए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तीन बोटियों के बेचारे पिता होने वाले ये महानुभाव आमजन नही वरन् भारतीय अर्थव्यवस्था, (जीडीपी, बाजार, विदेशी मुद्रा आदि) के कर्णधार व भाग्यविधाता है। यह सारी चीजें सुचारुरुप से चलती रहें इसलिये कानून व्यवस्था वनाए रखने की जिम्मेदारी इन्ही के मजबूत कंधों पर है। पर अचानक आम महिला की (अ)सुरक्षा का प्रश्न उजागर होगया (आम भारतीय की सुरक्षा इनकी प्रार्थमिकता नही लगती है) तो इनको अपनी बेचारगी का इजहार कर जन सहानुभूति बटोरने को मजबूर होना पड़ा। मैं सोच रही थी कि क्या कभी तीन बेटों का पिता किसी कपूत के पिता की दांसता सुनकर अपनी बेचारगी इसी प्रकार सार्वजनिक करेगा। अपनी 65 साल की आयु में तो मैंने किसी माता पिता को बेटे होने पर बेचारे बनते नहीं देखा।

जब खास इतने मजबूर हैं तो आम तीन बोटियों के बेचारे पिता की हालत तो समझ समझ से परे है। अब उन बेचारों की कौन कहे जिनकी छः सात बेटिया ही बेटियां हैं। काश इन तीन बोटियों के बेचारे पिताओं ने सोचा होता कि जब ये अपनी बेचारगी बार बार बता रहे थे हम बेटियों पर क्या गुजर रही थी। पता नहीं इन महानुभावों की बेटियों ने इनकी इस सोच पर आपत्ति जताई कि नहीं।हमें सोचना होगा कि क्या बेटी के लिए दुराग्रह का मूल इसी भावना में तो नही है। जब तक लड़की को माता पिता बेटिया पालना मजबूरी मानते रहेंगे समाज में उसे समानता कैसे हासिल होगी।

      हम बेटियों को ऊपर वाले का शुक्रगुजार होना चाहिये कि हमारी महिला मुख्य मंत्री, हमारे उपराज्यपाल(शायद) हमारे राष्ट्रपति तीन  बोटियों के बेचारे माता या पिता नहीं है। उनको सहारा देने के लिए बेटे हैं। अभी राष्ट्रपति महोदय के प्रबुद्ध सुपुत्र ने आंदोलन में भाग लेने वाली महिलाओं पर अपनी (अ)बुद्धिमतापूर्ण टिप्पणी से समस्त महिला समाज को उद्वेलित कर दिया है। उनकी अपनी बहन ने उनके बयान से अपनी असहमति जताई है। पितृसत्ता के इस चरित्र पर प्रहार किये बगैर समानता की संसकृति विकसित करना संभव नही है।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

औरत और परिवार

वह विवाहित है। उसके दो बच्चे भी हैं। पर वह अपने घर से अपने प्रेमी के साथ भाग कर आई है। इसलिए वह आम भारतीय महिला तो नहीं है जो अपने बच्चों के लिए कलपती रहे। अपना जीवन अपने प्रेमी के साथ मजे से जीना चाहती है। यहां पर एक पेच आगया है।उसका प्रेमी जैसा अक्सर होता है उसको छोड़कर अपने गांव वापस चला गया है। सुना है शादी रचा रहा है। उस पर तो मानो पहाड़ टूट पड़ा है।उसकी सपनों का संसार टूट गया है।वह किसी भी हालत में अपने प्रेमी को हासिल करना चाहती है। परंतु उसके पास शादी का कोई सबूत नहीं है। हां दस महिने वह आदमी उसका पति बन कर रहा है यह गवाही काफी लोग देने तैयार हैं।परंतु जिस संसथा में वह मदद मांगने गई वह इसको ज्यादा तवज्जों नहीं दे रही है। हां मदद का बादा नहीं ठुकराया है।

वह जल्दी में है।उसको अपने प्रेमी की शादी रुकवाने में अति शीघ्र मदद चाहिए।उसकी कोई महिला मित्र भी नहीं है जो उसको ढ़ढ़स बधा सके। वह जिसको भी अपनी व्यथा सुनाएगी वही उसको नीचा देखेगी।मायके वालों से भी कोई संवाद नही है। अलबत्ता अपने पड़ोसी पुरुषों से उसको सहानुभूति तथा मदद का वादा मिल रहा है।एक ने गांव जाकर उसके प्रेमी का अपहरण कर उसको सौंप दिने का वादा किया। वह उस पड़ौसी के साथ गाव जाने तैयार होगई।
यहीं से मेरी चिंता शुरु होगई।मैंने उसको कानून अपने हाथ में नहीं लेने की सलाह दी। उसको हो सकने वाले खतरों के बारे मे बताया। लेकिन वह अपना जिद पर अड़ी रही। मेरी चिंता बढ़ गई। मैं उसे धैर्य रखने व ठंडे दिमाग से सोच सम कर ही अगला कदम उठाने की सलाह देने लगी। पर बह कहां मानने वाली थी।

शुक्रवार, 25 जून 2010

राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण नीति 2001

राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण नीति 2001में भी सरकार मानी थी कि महिला की स्थिति के प्रश्न पर संविधान, सरकारी नीतियों , योजनाओं, कार्यक्रमों, व कानूनों में लक्षित उद्दे्श्यों व जमीनी सच्चाई के बीच में बहुत बड़ी खाई है।इसीलिए राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण नीति 2001 के उद्देश्यों और लक्ष्यों में महिलाओं का विकास, प्रगति व सशक्तिकरण रखा गया। सकारात्मक आर्थिक, सामाजिक नीतियों के माध्यम से ऐसा वातावरण बनाने का आश्वासन दिया गया जिसमें आम नारी अपने व्यक्तित्व का चहुमुखी विकास कर सके। जीवन के हर क्षेत्र—सामाजिक , राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व नागरिक क्षेत्रों में समस्त मूल अधिकारों , मानव अधिकारों, का उपभोग समानता के आधार पर कर सके। राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक मामलों में नीति निर्धारण में समान भागीदारी सुनिश्चित करना। नारी को शिक्षा, स्वास्थ्य़ सुविधाओं की समानरूप से उपलब्धता सुनिश्चित करना। समान काम के लिए समान मजदूरी मिलना, काम की जगह स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा मुहैय्या करना विकास प्रक्रिया में जैनडर perspective को समाहित करना, स्त्रियों व बच्चियों के विरुद्ध हर प्रकार की हिंसा व भेदभाव दूर करना आदि आदि मुख्य लक्ष्य बताए गए। पितृसत्तात्मक समाज में संपत्ति के अधिकारों की अवधारणा ने नारी की स्थिति दोयम दर्जे की बना दी है। अतः संपत्ति के मालिकाना हक, उत्तराधिकार की सुनिश्चितता को न्यायोचित बनाने के लिए कानून में परिवर्तन करने के लिए वातावरण बनाने की कोशिश करने का वादा किया गया।

सोमवार, 25 मई 2009

औरत को कमजोर करके ही उसकी सुरक्षा होती है।

एक नव विवाहित पति पत्नी में झगड़ा हुआ। बात बढ़ते बढ़ते मारपीट की नौबत आगई। पति ने पत्नी को इतना पीटा की पुलिस में रपट लिखानी पड़ी। थाने में एस एच ओ पत्नी को बूरी तरह पिटी देख कर द्रवित होगया।उसकी टिप्पणी थी कि इतनी पढ़ी लिखी और इतनी सुंदर लड़की का यदि यह हाल है तो हमारी बेटियों का क्या होगा? फिर उसको लगा कि इतना पढ़ लिख कर विशेषज्ञ बन कर भी यदि लड़कियों को इस प्रकार पिटना पड़े तो उन्हें पढ़ाने से क्या फायदा ?
कितना बड़ा विरोधाभाष है
चोरी होने के डर से हम धन संपत्ति जोड़ना नही छोड़ते। वरन् उस संपत्ति की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करते हैं। घर में हर तरह के ताले, ग्रिल आदि आदि, बैंक में लाकर। बेटे की चाह भी घर का दरवाजा खुले रखने के एजंट की भूमिका में अधिक स्वर्ग पहुचाने की भूमिका में कम होती है।
व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए पुरुष अपना शारीरिक बल बढाते हैं।लेकिन जब नारी की बात आती है तो उसको बचपन से ही तमाम प्रकार की खतरों, व असुरक्षाओं का न तो ज्ञान करया जाता है और न ही उनसे जूझने के लिए सक्षम बनाया जाता है। नारी को ताउम्र होने वाले खतरों के बावजूद समाज में अधिकतर माता पिता सर्वगुण संपंन, सुंदर, सुकोमल,(सूरज अस्पर्शया), भोली भाली, आज्ञाकारी पुत्री, और पति ऐसी ही पत्नी की पाने की कामना करते हैं। लड़की आत्मनिर्भर बने या न बने उसको एक कुशल ग्रहणी बनाना हर मां अपना परम करतब्य समझती है।लड़की को आत्मनिर्भर बनाना या उसमें अपने बारे में स्वयं निर्णय लेने का आत्मविश्वास जगाना,या उसका सुविधा संपंन होना उसके सफल ग्रहस्थ जीवन के लिए शुभ नहीं माना जाता है। इसीलिए माता पिता दान दहेज तो खूब देते हैं पर बेटे के बराबर का हिस्सा देने में आनाकानी करते हैं।
बेचारी अबला नारी के सांचे में ही हमारा समाज औरत को ढ़ालना चाहता है।बचपन की अपेक्षित बाल क्रीड़ाएं भी बेटा और बेटी की भिनं होती हैं। बेटे की हर प्रकार की शैतानियां, उद्दडंताए माता पिता के लिए आनंदित होने का सबब बनती हैं। पर बेटी से तो आज्ञाकारिता, सेवा भाव ही अपेक्षित होता है। आज्ञाकारिता, और सेवा भाव के सांचे में ढ़ली बेटी पितृसत्ता के दोहरे मापदंडों से सारा जीवन कैसे लोहा लेगी यह आम तौर पर माता पिता की चिंता नहीं होती। आम जिंदगी में तो अधिकतर माता पिता भी पितृसत्ता के पोषक ही होते हैं। पितृसत्ता उन्हें तभी परेशान करती है जब बेटी के सांथ कुछ अनहोनी होजाय।बेटी को न्याय भी वे पितृसत्ता के मापदंडों के तहत ही चाहते हैं—वह अपने पति के घर में रहे और माता पिता उसके सुखी होने का दम भरते रहें।

सोमवार, 28 जुलाई 2008

हम कितने भोले हैं

21 और 22 जुलाय को संसद में हुई बहस में विश्वास मत के समर्थन में भाषण देने वालों में राहुल गांधी का भी नाम था। राहुल बोले जम कर बोले। खूब शब्दों का जाल बुना। आत्मविश्वास की बात की। भारत के लिए और युवाओं के लिए सपने बुने। ऱाजनीतिक दलों के खाचो से बाहर निकलने का सुझाव दिया। परन्तु भोलेभाले राहुल बाबा यह बताना ही भूल गए कि आगे बढ़ने के लिए पांव रखने के लिए जो ठोस जमीन चाहिये वह कहां से आएगी।जिस जमीन पर चल कर युवा भारत को आगे बढ़ना है यदि वह जमीन ही पोली हुई तो कैसे भारत के नौनिहाल आगे बढेंगे। पोली जमीन पर चलना कितना दूभर होता है इसका हमें दो सौ सालों का अनुभव है।स्मरणीय है कि आम भारतीय ने खुशी से अंगेजों की गुलामी नही स्वीकारी थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले और बाद आदिवासियों ने पुरजोर ताकत से ब्रितानी सत्ता का विरोध किया। परन्तु वे ऐसे कुचले गए कि आज तक भी नही उबर पाए। आज फिर उदारीकरण की आंधी में उनका सब कुछ तहस नहस होरहा है। और वे अपने जंगल जमीन बचाने के लिए एक बार फिर अपना सब कुछ दाव पर लगाने मजबूर हैं।राहुल गांधी जब युवाओं को सपने दिखा रहे हैं तो एक सेकिन्ड के लिए लगा कि दलित, आदिवासी, आत्महत्या करने को मजबूर गरीब किसान, मजदूर, बुनकर अन्य शिल्पकार, रेहणी पटरी वाले युवक शायद उनके जहन में नही होंगे। पर ऐसा नही था। राहुल गांधी ने ऋण के बोझ तले दबे आत्महत्या करने को मजबूर हुए किसान की बेवा कलावती का जिक्र किया और कहा कि इस करार से उस जैसी गरीब महिला को बिजली मिलेगी। इससे अधिक भद्दा मजाक क्या हो सकता है। बहस के एक दो दिन बाद एक समाचार चैनल वालों ने कलावती को खोज निकाला। कलावती ने चैनल के संवाददाता को बताया कि उसके घर में दो दिन से पकाने को चावल नही थे।जिसके पास चावल खरीदने को पैसा नहीं हो वह परमाणु ऊर्जा से बनी बिजली कैसे खरीद सकती है?यह प्रश्न हमारे जनप्रतिनिधियों के लिए प्रासंगिक नही था। राहुल गांधी को भी इसको समझाने की जरुरत नही थी। लाख टके के इस सवाल का जबाब महात्मा गांधी ने खादी और कुटीर उद्योगों में ढ़ूढ़ा। राहुल विदेशी पूंजी और तकनीक आधारित परमाणु ऊर्जा उद्योग में ढ़ूढ़ रहे हैं।
क्या राहुल गांधी अज्ञानवश यह कह रहे थे या परमाणु करार के अन्य समर्थकों की तरह दोगला बोल रहे थे।प्रासंगिक है दोगला बोलना आधुनिक सभ्यता की विशेषता है। दो सौ साल की गुलामी के दौरान अंग्रेज इस दोगलेपन को हमारे खून में घोल गए हैं। इसीलिए लगभग सारे नेता गरीबो, किसानों को बिजली देने के नाम पर नाभिकीय करार का समर्थन कर रहे थे। जबकि गरीब तबकों को लोग इतना महंगी बिजली खरीदने की हैसियत ही नही रखते। पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने दो तिहाई दुनियां का शोषण कर खुशहाली का वर्तमान स्तर हासिल किया। और इन दो तिहाई लोगों को गुलाम बनाने की प्रक्रिया को सभ्य बनाने का मिशन बताया तथा सफेद आदमी का बोझ कहा। इससे बड़ा झूठ और क्य़ा होसकता है। आज भी इस दो तिहाई विश्व को शोषण दमन की जो नीतियां बन रही हैं उनको इन देशों की गरीबी दूर करने को लिए आवश्यक बताया जाता है।1833 में लार्ड मेकाले ने भारत में दोगली संस्थाओं के स्थापना का मार्ग प्रसस्त किया। यह भारत में अंग्रेजी शिक्षा लागू करने के बहाने किया गया।का कानून पारित करवाया। इसी के साथ भारत में अंग्रेजी शासनिक एवं प्रशासनिक संस्थाओं की नींव पड़ी। अंग्रेजी शिक्षा कानून पारित होने से पहले रिफोर्म विधेयक पर बहस पर बोलते हुए लार्ड मेकाले ने कहा कि, “ भविष्य में शायद वे(भारतीय )पूर्ण यूरोपीय शासन-प्रणाली जारी कराना चाहेंगे.... जिस दिन सचमुच भारत में ऐसी अवस्था उपस्थित होगी , इंग्लेंड के इतिहास में वही दिन सबसे बढ़कर गौरव-जनक समझा जायगा। वस्तुतः हम इस गौरव के पूर्ण अधिकारी होंगे।”( सखाराम गणेश देउस्कर देश की बात, एल बी टी.2005 पृष्ट6-7)

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

हम कितने भोले हैं

भारत अमेरिका परमाणु करार बहस में करार समर्थकों ने शब्दों का जो मायाजाल रचा, जिस तरह से ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअन्दाज कर यह समझाने की कोशिश की कि यह समझौता भारत के हित में है। उससे तो यही लगा कि करार समर्थक बहुत भोले हैं या बन रहे हैं।चूंकि करार समर्थक मानते हैं कि यह एक ऐतिहासिक मौका भारत के हाथ लगा है। भारत को इस मौके को नही गवाना चाहिये यदि अभी गवा दिया तो फिर शायद कभी हाथ नही आएगा और भारत अमेरिका से दोस्ती करने का मौका हाथ से गवा देगा। दुर्भाग्य से ऐतिहासिक तथ्य कुछ और ही कहते हैं इस ब्लाग में इन्ही तथ्यों के आधार पर यह दर्शाने की कोशिश की जाएगी कि किसी भी साम्राज्यवादी देश का पिछलग्गू होना कितना बड़ा अभिशाप है। अमेरिका से दोस्ती का एक नमूना तो हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान है। उसकी हालत तो जग जाहिर है।फिर भी यदि हम अमेरिका से दोस्ती कर तथाकथित विकास करने का सपना देख रहे हैं तो क्या हम भोले नहीं हैं?अभी इतना ही । आगे और तथ्य आपके सामने रखेंगे।